Monday, May 26, 2008

गिरिजेश भाई

गिरिजेश भाई करीने-सलीके की शानदार जिल्दबंद किताब हैं। कमीज़ से लेकर उनकी मूछें तक सब कुछ ठीक वैसा होता है जैसा होना चाहिए, अनुशासित और खूबसूरती से सजा हुआ। उनका व्यक्तित्व एक सलीकेदार सरकारी अफसर के करीने से सजे ड्राइंगरूम जैसा है।

CNBC आवाज़ के इस सुरीले पत्रकार के शौक हैं चुनिंदा संगीत, चुनिंदा किताबें, चुनिंदा दोस्त. इन तीनों चीजों को गिरिजेश बहुत सहेज कर रखते हैं। उनके दिलजलाऊ कलेक्शन में मैं अकेला ordinary सामान हूँ. हमारी दोस्ती करीब चार साल की होने वाली है, अब तो अपने पैरों पर खूब चलती है, ज़ुबान भी खासी साफ हो गयी है। वो चाहते हैं की हम जितनी जल्दी हो सके उसे शराफत-सलीके सीखने स्कूल भेज दें । मैं हूँ की अपने आँगन में नंगी घूमती-इठलाती, शरारतें करती इस दोस्ती पर इस कदर फ़िदा हूँ की उसे उस स्कूल भेजना ही नहीं चाहता. सुनते हैं वहाँ छोटे बच्चों को छड़ी से पीटते हैं. चलिए छोड़िये ये हमारा पर्सनल किस्सा है।
गिरिजेश भाई बासो से तब से जुड़े हैं जब बासो का सिर्फ़ विचार जन्मा था। CNBC आवाज़ के खर्च पर हम दोनों ने घंटों बैठ कर विचार किया है की बासो दिखने सुनाने में कैसा होना चाहिए। मैं पहले ही लिख चुका हूँ की गिरिजेश भाई बासो की धाय माँ हैं। तो इस माँ ने अपने बच्चे को १९ बेहतरीन किताबों का तोहफा भेजा है।

Friday, May 23, 2008

मौत ने चुना मेरा घर

मौत एक फुल स्टॉप की तरह आती है। सब कुछ वहीं का वहीं थम जाता है। इस बार ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ। हमारे घर में एक फूल सी बच्ची थी, पारुल। सिर्फ़ पच्चीस साल की। साल भर पहले ही शादी हुई थी। ग्रेटर नोएडा में एक हादसे में अचानक वह हमसे छीन गयी। रिश्ते में मेरी चचेरी बहन पारुल की मौत ने जैसे हमारे परिवार में सबकुछ एक झटके से रोक दिया। बासो की योजनाएं भी जहाँ की तहां थम गयीं। उसके पार्थिव शरीर को लेकर अपने गृहनगर गया। जाने से पहले लिखा एक अधूरा पोस्ट जस का तस पेश है, सिर्फ़ ये बताने के लिए कि इस जीवन में योजनाओं का मतलब कुछ नहीं होता :
३ मई को जब बासो की पहली लाइब्रेरी शुरू हुई थी तो हमने लक्ष्य बनाया था कि एक महीने में एक और लाइब्रेरी शुरू करेंगे और साल भर में पचास लाइब्रेरी होंगी। लेकिन पहली लाइब्रेरी शुरू होने के हफ्ते भर के भीतर ही दूसरी लाइब्रेरी शुरू होने की तैयारी हो गयी। ये लाइब्रेरी इस रविवार यानी १८ मई को सेक्टर ११ के धवलगिरी अपार्टमेंट में शुरू होगी। वहाँ का RWA बहुत उत्साह में है और बच्चों को गरमी की छुट्टियों का तोहफा देने को बेकरार है। इधर सेक्टर ५६ नोएडा का RWA भी पूरे जोश से हमारे साथ जुट गया है। हमारी लाइब्रेरी अब पार्क से कम्यूनिटी सेंटर में शिफ्ट हो गयी है। बच्चों के लिए बहुत सी कुर्सियाँ भी मिल गयी हैं और किताबें रखने के लिए अलमारी भी। RWA के महासचिव एस के नंदा और मेरे पुराने वाकिफ नोएडा अथारिटी के अधिकारी आर के शर्मा का ज़बरदस्त सहयोग और उत्साह ही है कि महज सात दिनों में ही लाइब्रेरी को सारी सुविधाएँ मिल गयीं। वादा ये भी है कि दो महीने के भीतर इस लाइब्रेरी को एक कमरा भी मिल जाएगा। पी सी जैन साहब और उनकी पत्नी का योगदान भी सराहना योग्य है। दूसरों की मदद करने कि ऐसी तड़प ऐसे नौजवान जोड़े में मिलनी मुश्किल है। दोनों में परोपकार के लिए एक जैसी तड़प है। धवलगिरी अपार्टमेंट के RWA अध्यक्ष शांतनु मित्तल बहुत पुराने दोस्त हैं। उन्होंने बासो के संकल्प को बहुत उत्साह से लिया है। RWA के उपाध्यक्ष सुनील कुमार नाग जल्दी से जल्दी अपने अपार्टमेंट में बासो लाइब्रेरी शुरू करने की मुहिम में जुट गए हैं। बासो की शुरुआत में हम छः लोगों ने एक एक हजार रुपये हर महीन देकर इस अभियान को चलाने का निश्चय किया था, लेकिन एक साथी कुछ वक्त के लिए सहयोग नहीं दे पायेंगे। मतलब कुछ दिन थोडी और किफायत से काम चलाना होगा।

Wednesday, May 21, 2008

आँचल

आँचल एक शैतान लड़की है. शरारत उसकी आंखों से हमेशा झांकती रहती है, हालांकि बात बात पर हलकान हो जाने वाली इस लड़की को ज़रा सी देर तक देखो तो वो एक छोटे मासूम बच्चे में बदल जाती है जिसके पास बहुत सारे मासूम से पर मुश्किल सवाल हैं. वो आपसे ज़िंदगी के मुश्किल से मुश्किल सवाल इस आसानी और मासूमियत से पूछ लेगी जैसे उनका जवाब आप पल भर में अंगुलियों पर जोड़ कर दे देंगे. ये बात ही वो बात है जो आँचल को पूरी दुनिया से अलग खड़ा करती है।

NDTV की ये स्टार रिपोर्टर इस साल अपनी एक बेहतरीन स्टोरी के लिए CNN Young Journalist of the Year चुनी गई है. बासो के लिए इस बदमाश लड़की ने तीन शानदार किताबें दी हैं।

संदीप

NDTV के वरिष्ठ पत्रकार संदीप भूषण मुझे किसी फिल्मकार की कल्पना के पत्रकार लगते हैं. चेहरा-मोहरा, हाव-भाव, अंदाज़, पहनावा, चाल-ढाल सब कुछ वैसा जैसा अगर रंग और ब्रुश लेकर हम एक पत्रकार को ड्राइंग शीट पर बनाने बैठें. इससे हटकर कुछ ऐसा भी जो दिखलाने में रंग और ब्रुश नाकाफी हों; मसलन उनकी चिंताएं और सरोकार. वो अपनी सादगी पर ख़ुद आत्ममुग्ध नहीं हैं, अपनी इमानदार बेचैनी पर ख़ुद नहीं मर मिटे हैं. यही ख़ास है संदीप में.

News room में उनसे बासो पर बात हुई, बच्चों के लिए लाइब्रेरी शुरू करने पर चर्चा हुई तो उन्होंने उसका स्वागत किया. अपनी हामी उन्होंने अपने सहयोग से दी. वो अपने बेटे रुद्र की कहानी की किताबों का खजाना उठा लाये. एक से एक कहानियां. सिंदबाद जहाजी से लेकर, पंचतंत्र की चुनिंदा कहानियों तक. पहली लाइब्रेरी शुरू हुई तो सबसे ज्यादा हिट रुद्र का संकलन ही रहा.

संध्या

एक छोटी सी, प्यारी सी लड़की का नाम है संध्या. छोटी सी पर जोश से लबालब भरी हुई लड़की. वो शायद एक उम्र होती है जब हम वैसे ही होते हैं जैसे हीरो को हम अपने मन में रचते हैं. उस वक्त हममें कुछ भी ख़राब नहीं होता. संध्या उसी उम्र से गुज़र रही है. उससे NDTV में मुलाकात हुई जहाँ वो काम करती है।

अपना कुछ सबसे प्यारा उठाकर किसी को दे देने में गज़ब सुख होता है लेकिन इसका अनुभव कम लोग ही कर पाते हैं. संध्या ने जब इस सुख को समझा तो वो बासो लाइब्रेरी के लिए एक ऐसा खजाना उठा लाई जो उसने बचपन से लेकर अब तक बहुत एहेतियात से संजोया था. ये थे नेशनल जेओग्रफिक के २१ अंक. ये संकलन उसने कभी अपने सबसे प्यारे दोस्तों को भी छूने नहीं दिया।
अपना ऐसा कुछ सबसे प्यारा ऐसे किसी को दे देना जिसे हम बिल्कुल न जानते हों. यही नहीं वो भी हमें न जानता हो और साथ ही उसे ये भी न पता हो की ये उसे दिया किसने है. इस सुख का एहसास वही कर सकता है जो निस्वार्थ की नर्म घास पर बिछी इस अद्भुत अनुभव की ओस पर सुबह सुबह नंगे पाँव चला हो, संध्या की तरह।

Sunday, May 11, 2008

माँ के लिए

बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका-बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ
बान की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे आधी सोयी-आधी जगी
थकी दुपहरी जैसी माँ
चिड़ियों की चहकार से गूंजे
राधा-मोहन..अली-अली
मुर्गे की आवाज़ पे खुलती
घर की कुण्डी जैसी माँ
माँ-बेटी- बहन-पड़ोसन
थोडी-थोडी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ
बाँट के अपना चेहरा...माथा
...आंखें जाने कहाँ गई
फटे-पुराने इक एल्बम में
चंचल लड़की जैसी माँ.

Tuesday, May 6, 2008

शहद में डूबा ख़त

ये है गिरिजेश भाई का शहद में डूबा ख़त। ताजा और गरमा गरम। गिरिजेश भाई बहुत ही शौकीन, गुणी, सहज और सुरीले पत्रकार हैं। गिरिजेश रिश्ते में बासो की धाय माँ भी हैं। उनका पहला पोस्ट पेश है -

"ज्ञान का बोझ मत कहिए। व्यंग्य सा लगता है। आपके हाथ तो किताबों के बोझ से दुख रहे हैं, और ईश्वर करे ये बोझ बढ़ता ही चला जाए।बासो का सपना जितना खूबसूरत और अनूठा है, इसकी शुरुआत की कहानी भी उतनी ही प्यारी है। ढेर सारी बधाइयां। बासो के लिए मेरी लाइब्रेरी में भी कुछ किताबें हैं, कैसे पहुंचाऊं?"

Monday, May 5, 2008

ज्ञान का बोझ

हथेलियों से लेकर कोहनियों तक दोनों हाथों में काफ़ी दर्द हो रहा है। २४ साल पहले का वक्त लौट आया लगता है. हम नए घर में शिफ्ट हुए थे. अक्सर पानी की सप्लाई रुक जाती थी और कभी कभी तो ये सिलसिला दो तीन दिन तक खिंच जाता था. तब घर सो दो बाल्टियां लेकर निकलता था और दूर हैण्ड पम्प से पानी भर कर घर लाता था. अब दादी नहा लीं हैं, अब मम्मी नहायेंगी, अब पौधों के लिए पानी और अब खाना बनाने का. घर भर का पानी भरने का जिम्मा मुख्य तौर पर मेरा होता था जिसमे दोनों दीदी भी परोपकार की नीयत से हाथ बटा लेती थीं. बाहें बहुत थक जाती थीं पर बहादुरी में कभी किसी को नहीं बताता था.

लंबे अरसे की आरामतलबी के बाद हाथों का वो पुराना दर्द फिर जागा है. इस बार अपनी पहली बासो लाइब्रेरी के लिए. हुआ यूं की हमें सेक्टर के आर डब्ल्यू ए ने जगह नहीं दी तो सोचा की इतने पैसे तो हैं नहीं की कोई जगह किराये पर ली जा सके. सब्र बाढ़ के दिनों में गंगा जी के किनारे की तरह वक्त के हर थपेडे के साथ पानी में घुलता जा रहा था. तय किया की अब और इंतज़ार नहीं हो सकता, नोएडा के सेक्टर ५६ के डी ब्लाक के पार्क में ही लाइब्रेरी शुरू कर दी जाए. मैं और मेरी दीदी झटपट बाज़ार गए और चार चटाइयां, एक प्लास्टिक का ब्लैकबोर्ड एक चोक का डिब्बा, दो रजिस्टर और ऐसा ही कुछ दूसरा छोटा मोटा सामन खरीन लाये और शाम को ये सामान ले कर सीधे पार्क में जा धमाके. इतने में मित्र डॉक्टर उपेन्द्र, उनके दो बेटे, इंजीनियरिंग के छात्र सिद्धार्थ भी घर आ गए. इन लोगों के साथ किताबें और बाकी का सामान ले कर हम सीधे सामने के पार्क में जा धमके ।

सिद्धार्थ ने ब्लैक बोर्ड पर बासो लाइब्रेरी का नाम और जानकारी लिखी. इस बोर्ड को हवा की तमाम बद्तामीजियों के खिलाफ एक पेड़ से अनुशासित कर लटकाया गया. दीदी ने चटाइयां बिछाईं और तब तक मैं घर से तीन चार चक्करों में करीब तीन सौ पुस्तकों का साझा खजाना उठा लाया. डॉ उपेन्द्र के बेटे भारत और पार्थसारथी वालंटियर बन गए. किताबें बिछीं तो आस पास खेल रहे बच्चे कौतूहल से जुटे. ये जानकर की किताबें उनके लिए ही हैं, उनकी खुशी अव्यवस्था बनकर फैल गयी. पाँच साल की बुलबुल और दस साल की मणिकर्णिका तुरंत व्यवस्थापक बन गयीं. और बासो की पहली लाइब्रेरी शुरू हो गई. बच्चों का उत्साह देखने लायक था और शायद मेरा भी. मेरी पत्नी पूनम के पिता जी हमारे घर आए हुए थे. मैं बासो को ले कर जो हवाई किले बनाता था उनकी नाप जोख का जिम्मा उनपर था. लाइब्रेरी शुरू होने के वक्त वो भी पार्क में मौजूद थे. जब किताबों को लेने, छूने, पढ़ने को लेकर बच्चों में होड़ लगी थी तो उन्होंने मेरे पास आकर कहा, अच्छा हुआ की हमें कम्यूनिटी सेंटर में जगह नहीं मिली.

यहाँ एक बात कहानी बहुत जरूरी है. सबसे ज्यादों उत्साह नन्हें रुद्र की किताबों को लेकर रहा. रुद्र मेरे दोस्त और NDTV के पत्रकार संदीप भूषण का बेटा है. उसने बासो की इस लाइब्रेरी की लिए अपनी सबसे प्यारी बहुत सारी किताबें दी हैं. मैं नहीं जानता की जब शनिवार शाम करीब छः बजे लाइब्रेरी शुरू हो रही थी, नन्हा रुद्र कहाँ था और क्या कर रहा था लेकिन इतना पक्के तौर पर कह सकता हूँ की उसे उस वक्त अचानक बहुत अच्छा लगा होगा, मुस्कुराने का मन किया होगा. हवा के एक झोंके के साथ बहुत से नन्हें दोस्तों की आवाज़ ने उसे छूकर कहा होगा – “शुक्रिया रुद्र.”

आज इस लाइब्रेरी का दूसरा दिन था और तीसरा सेशन. बात साफ करता चलूँ. मुश्किल ये है की ये लाइब्रेरी है नर्म घास के ऊपर और खुले आसमान के नीचे. न तो ये अंधेरे में चल सकती है और न चटकती दोपहर में। इसलिए फिलहाल तय ये हुआ है की लाइब्रेरी सुबह छः बजे से आठ बजे तक चलेगी और शाम को सार्हे (half past) पाँच बजे से सार्हे सात बजे तक. सोमवार और शुक्रवार को लाइब्रेरी बंद रहेगी और बाकी जब बरखा रानी की कृपा हो जाए. तो हर बार लाइब्रेरी का वक्त शुरू होने से पहले तीन सौ किताबों में बंद ज्ञान कुछ थैलों में रखकर पार्क तक पहुंचाना होता है और फिर लाइब्रेरी का वक्त ख़त्म होने के बाद ये थैले वापस उठाकर घर लाने होते हैं. ज्ञान के इसी बोझ से हाथ दुःख रहे हैं और २४ साल पहले का वक्त याद आ गया. उस वक्त की तरह ये दर्द भी अच्छा लग रहा है।

Sunday, May 4, 2008

चिट्ठी आयी है


ये हैं कमेंट्स जो जवाब में आए हैं। दरख्वास्त ये है की अगर anonymous ऑप्शन भी लें तो भी पोस्ट के आख़िर में अपना नाम ज़रूर लिख दें। सुविधा के लिए देवनागरी में ये चिट्ठी पेश है।

लौ दे उठे वो हर्फ़-ऐ-तलब सोच रहे हैं,
क्या लिखिए सर-ऐ-दामन-ऐ-शब सोच रहे है।

क्या जानिए मंजिल है कहाँ जाते हैं किस सिम्र्त,
भटकी हुई इस भीड़ में सब सोच रहे हैं।

भीगी हुई एक शाम की दहलीज़ पे बैठे ,
हम दिल के धड़कने का सबब सोच रहे हैं।

इस लहर के पीछे भी रवां हैं नई लहरें,
पहले नहीं सोचा था जो अब सोच रहे हैं।

हम उभरे भी डूबे भी सियाही के भंवर में,
हम सोये नहीं शब-हमा-शब सोच रहे हैं।



[siyaahii = darkness; bha.Nvar = whirlpool][shab-hamaa-shab = night after night]

Thursday, May 1, 2008

BASO Family




It has been more than a year since BASO took birth as an idea. It laid dormant for a long time beneath the earth. That was the time when the idea of BASO was taking shape. There was a very strong will behind the idea, but transition from an idea to a programme was something that took a lot of time. The idea of BASO got registered as a non profit company on 28 February 2008. Today we are just a few steps away from opening our first library.
BASO is a very fast expanding family. We at BASO feel that it’s a collective endeavor where you can come and participate by being a part of it. Everybody can participate and contribute in his/her own special way. So we in BASO family have people who have helped it grow from an idea to a programme. There are others who contributed there time and resources in getting it registered with Registrar of Companies. Some others contributed books for the first BASO library and some of them decided to contribute money to run BASO programmes.
It’s impossible to name each and everyone. Some of us want to work silently and don’t want to be named so I have to respect their sentiments also. But there are others whose contribution to the cause has been great and not mentioning their names will be difficult. This journey would have been longer and hard had they not come along. Everybody’s contribution is very-very special in its own special way. I find it my duty to introduce BASO family members to each other. So, next few posts will be about you all, one by one. I will also keep you posted about developments at BASO. BASO accounts and list of donated books and donors will also be posted very soon. These two things will be updated on a regular basis.

Wednesday, April 30, 2008

मुश्किल भी नहीं आसां भी नहीं


कॉपी पेंसिल लेकर हवाई किले बनाना काफी आसान होता है, लेकिन जब इस सपने को हकीकत के धरातल पर खींचो तो अजब तरह की मुश्किलें पेश आती हैं। ऐसी मुश्किलें जिनका सपने में भी गुमान नहीं होता। शुरुआत में सबकुछ बहुत आसान लग रहा था। अब पहली लाइब्रेरी के लिए जगह ही नहीं मिल रही है। मैनें सोचा था कि बच्चों कि रूचि के इस काम के लिए आर डबल्यू ए यानी रेजिदेंट्स वेलफेयर असोसिएशन फ़टाफ़ट तैयार हो जायेंगे। वो भी चाहते होंगे कि बच्चों एंटरटेनमेंट टेलीविजन और वीडियोगेम्स की बुरी संगत से आजादी मिले। किताबों से उनकी जान पहचान हो, दोस्ती हो। वो जरूर ऐसा ही सोचते होंगे लेकिन शायद स्वाभाविक शंका उन्हें रोकती होगी की जाने कौन संस्था है, जाने कौन लोग हैं। अगर आसान हो तो सिंदबाद जहाजी की कहानियों का रोमांच कहाँ से आएगा? शायद इसीलिए बासो की शुरुआत करते वक्त से ही मुश्किलें आसपास ही रही हैं। इस बात को कम्पनी सेक्रेटरी दोस्त मनीष रंजन बहुत अच्छे से जानते हैं। फीस उन्होंने ली नहीं, उल्टे अपनी जेब से पैसे लगाए। २४५० रुपये का हिसाब बासो की तरफ़ निकलता है लेकिन बासो के पास अभी पैसे ही नहीं हैं। वक्त इतना ज्यादा लगा जितनी किसी को उम्मीद नहीं थी। तो मुश्किलों से बासो की दोस्ती पुरानी है। फिलहाल तय ये किया है की किसी पार्क में दूकान जमाई जाए। बाबा रामदेव की योग क्रांति भी शहरों के पार्कों की गोद में जन्मी है। क्रांतियों के लिए नर्म घास वाली ये जमीन काफ़ी उर्वर लगती है। इरादा ये है की एक छोटा सा बैनर लगा कर पार्क में ही लाइब्रेरी सजा दी जाए और बच्चों को पढ़ने का चस्का लगाया जाए। सोचा ये भी है की गरमी की छुट्टियां शुरू होने वाली हैं। एक हजार रुपये की प्रोत्साहन राशी रख कर मोहल्ले के दो-तीन बच्चों को ही लाइब्रेरी जमाने, सजाने और चलाने का जिम्मा सौंपा जाए। जिनकी लाइब्रेरी है, वो ही चलायें। उन्हें एक बड़ा काम हाथ में लेकर उसे व्यवस्थित तरीके से अंजाम तक पहुंचाने का अनुभव भी मिलेगा और जिम्मेदारी उठाने की ताकत भी मिलेगी। अगले दस दिनों में इस योजना को जमीन पर ले आने का निश्चय किया है। आगे उसकी इच्छा जिसका काम है या जिसकी प्रेरणा से काम शुरू हुआ है।

Sunday, April 20, 2008

बड़ी जीजी


बड़ी जीजी हम चार भाई बहनों के छोटे से गैंग की लीडर थीं। हम कहीं भी जाते, वो आगे-आगे तन कर चलतीं और हम उनके पीछे-पीछे। जीजी के होते छोटी मोटी मुसीबतें मुश्किलें हमारे आस पास फाटक भी नहीं सकती थीं। वो हमेशा हर खेल में जीतती थीं। उनके दोस्त सहेलियां आते तो हम उनके आगे पीछे भी घूमते।

बचपन के बड़े हिस्से में जीजी हमारे सामने एक फ़िल्म की तरह गुजरती गयीं जो जादूगरनी के ग्लोब में दिखाई देती है। यानि उन्हें देख कर हमें पता चल जाता कि आगे हमारे साथ क्या होने वाला है। जब उन्होंने बचपन से किशोरावस्था में कदम रखा तो हम ही उनके सबसे पक्के सच्चे दोस्त थे। कभी घर कि छत पर तो कभी सबके सोने के बाद हम उनसे बात करने बैठते और जाने कितना वक्त चुपचाप बेआवाज़ बह जाता। मैं ग्यारहवीं में था जब दीदी कि शादी हुई। हमारे लिए जीजी की शादी का सबसे बड़ा मतलब उनका अपने बीच से गायब होना था। जब वो घर आतीं तो मम्मी से ही ज़्यादा बातें करतीं। यूं कई बार उनसे उनकी ससुराल में भी मिला पर वो दूसरी ही जीजी थीं। इस तरह जीजी की शादी हमारे जीवन में बड़ी घटना थी।

इधर जीजी काफी कुछ मम्मी जैसी हो गयी थीं। अपनी जिंदगी भी कहाँ से कहाँ पहुँच गयी। बासो की शुरुआत हुई तो जीजी से बात हुई। जीजी अगर जीजी होतीं तो मेरे हवाई किले में दो मीनारें अपनी भी खड़ी करतीं, या शायद तुरंत पूरी लड़ाई की कमान संभल लेतीं। लेकिन इस बार माँ की तरह मेरे इरादे पर जीजी ने पूरा भरोसा जताया। कहा चलो आज से मैं भी तुम्हारे साथ। बासो का अकाउंट खुलने में भी देर थी लेकिन दीदी एक हजार रुपये ले आईं। मैंने कहा, जब शुरू करूंगा तो बताऊंगा, लेकिन वो नहीं मानीं। दान के वक्त उनका संकल्प मैं कभी नहीं भूलूंगा। मेरी हथेली पर पैसे रखने से पहले उनहोंने एक पल आँख बंद कर कहा। भगवान्, ये पैसे दे रही हूँ। इसका कोई बदला या फल मुझे न मिले। निष्काम कर्म का ये पाठ पढाने के लिए भगवान् कृष्ण को गीता में सात सौ श्लोक कहने पड़े थे, जीजी ने एक वाक्य में वो बात मुझे ऐसे समझाई की शायद कभी न भूल पाऊंगा।

Friday, March 7, 2008

एक सपने का उगना

पाँच साल की बुलबुल का ज़मीन से एक नया बना रिश्ता है। कोई भी चीज़ जिसे पहले मुट्ठी में बंद करने का जी करे और फिर बार-बार देखने का भी, उसे ज़मीन की पोली हथेली में दबा देती है। इस उम्मीद के साथ की ज़मीन की मुट्ठी की संधों से अभी एक सपना झाँकेगा। उसकी आंखों में उम्र भर इंतज़ार का जज्बा होता है पर दिल में एक पल का सब्र नहीं।
बीते साल जनवरी में मैंने भी यूं ही एक सुबह एक सपना बोया था। तेरह महीने बाद बासो नाम के इस सपने ने जन्म लिया है। विनोबा के शब्दों में कहें तो बासो का जन्म होना था अभाव के वैभव में तो फिर सबका जुटना जरूरी था ही । सबसे पहले वकील दोस्त सचिन पुरी ने हाथ बढ़ाया। कागजी खानापूरी निपटाने का काम उन्होंने साथी विकास तोमर को सौंपा। विकास इस कमिटमेंट से न जुटते तो बासो की शुरुआत ही शायद कभी न होती। इसके बाद चार्टर्ड एकाउंटेंट दोस्त राजेश और कम्पनी सेक्रेटरी दोस्त मनीष रंजन जुटे। किसी ने कोई फीस नहीं ली। मनीष भाई की जेब से कितने पैसे लगे इसका हिसाब होना बाकी है। पर शुक्रिया किसी का नहीं। शुक्रिया से हिस्सेदारी का एहसास कम होता है। २८ फरवरी को रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट मिला था। अब सफर शुरू हुआ है। अभी बहुत दूर चलना है साथ साथ
मैं अकेला ही चला था जानिब-e- मंजिल मगर
लोग साथ आते गये और karvaan banta gaya